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दो जून की रोटी की चाहत में पिसता मासूम बचपन;रिपोर्ट- मुबीन खान गरौठा

झाँसी दर्शन न्यूज़

ग्रामीण एडिटर अवध बिहारी

 

 

बचपन जिंदगी का बहुत खूबसूरत सफर होता है लेकिन कुछ बच्चों के बचपन में लाचारी और गरीबी की नजर लग जाती है खेलने कूदने की उम्र में कोई बच्चा मजदूरी करने को मजबूर हो जाए तो इससे बड़ी विडंबना किसी भी समाज के लिए भला और क्या हो सकती है |
दो वक्त की रोटी की चाहत में कारखानों से लेकर बस स्टैंड रेलवे स्टेशनो होटलों ढाबों पर एवं शादी ब्याह मैं काम करने से लेकर कचरे के ढेर में कुछ ढूंढता मासूम बचपन |
आज ना केवल 21 वी सदी के भारत की आर्थिक वृद्धि का स्याह चेहरा पेश करता है
बल्कि आजादी के 72 वर्ष बाद भी सभ्य समाज की उस तस्वीर पर सवाल उठाता है जहां हमारे देश के बच्चों को हर सुविधाएं मिल सकें |
लेकिन मासूम बच्चों से मजदूरी कराना ढाबों पर काम कराना शादी ब्याह में छोटे-छोटे मासूम बच्चों से प्लेट धुलबाना झाड़ू लगवाना आम बात हो गई है |
इस पर कोई भी ध्यान नहीं देता जबकि हमारे देश में बाल श्रम अधिनियम 1986 के अंतर्गत 14 वर्ष से कम उम्र के बच्चों पर बाल श्रम प्रतिबंध है |
लेकिन सरकारें गरीबी से पीड़ित लोगों को पर्याप्त सामाजिक सुरक्षा प्रदान करने में नाकाम रही है|
इसलिए ऐसे मासूम बच्चे पढ़ लिख नहीं पाते हैं और उनका जीवन हमेशा ऐसे ही गुजर जाता है|
बाल मजदूरी मानव अधिकारों का हनन है मानव अधिकारों के अंतर्गत प्रत्येक बच्चे को शारीरिक मानसिक एवं सामाजिक विकास का हक पाने का पूर्ण अधिकार है|
लेकिन स्कूल प्यार खेलकूद ऐसे मासूम बच्चों की कल्पना में ही रह जाते|
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