ज्ञानधारा में डूबकर कर्मधारा को पवित्र बनायें : आर्यिका पूर्णमति
झांसी । जब तक यह ज्ञान नहीं होता कि शरीर मेरा नहीं है तब तक इसके प्रति राग भाव बना रहता है। यही राग भाग जीव की मुक्ति में बाधक है। इसी के कारण हम मृत्यु से मुक्त नहीं हो पाते और न ही हमें शिव-सुख की प्राप्ति हो पाती है। यह सदबचन करगुवां जी में धर्मसभा में बोलते हुए आर्यिका पूर्णमति ने कहे ।
दिव्य देशना देते हुए उन्होंने कहा कि राग द्वेष रुपी रसायन के माध्यम से यदि कर्मों का बंध होता है, संसार का निर्माण होता है, तो बीत राग भाव-रुपी रसायन के माध्यम से सारे के सारे कर्मों का विघटन भी संभव है । बीतरागी के चरणों में जाकर हमें अपने राग भाव को विसर्जित करना होगा, पर पदार्थों के प्रति आसक्ति को छोडऩा होगा तभी एकत्व की अनुभूति हो सकेगी। समय सार ग्रंथ का रसपान कराते हुए गुरु मां ने कहा कि जिस कार्य के करने में जीव को लगता है कि उसे सुख प्राप्त होगा, उसे करने को वह दौड़ पड़ता है, इस दौड़ में वह थक गया लेकिन सुख नहीं मिला क्योंकि वह सुख तो एक मात्र भ्रम था। जब भीतर से अनुभूति होती है तब पता चलता है कि भीतर में ही सुख है, अभी तक पुदगल (शरीर) में सुख मानता रहा है ।
उन्होंने कहा कि अनादिकाल से दोनों द्रव्य (जीव एवं शरीर) एक साथ रह रहे हैं, एक क्षण के लिये भी एक-दूसरे से अलग नहीं है । इसलिए जीव शरीर को अपना मान लेते हैं। किंतु कर्म साथ नहीं है वह समय के अनुसार बदलते रहते हैं । यह शरीर कर्मों को बंध कराने में बहुत नुकसानदायक है। लेकिन सम्यक ज्ञान, सम्यक चारित्र का सुख आत्म तत्व के ज्ञान से मिलता है। ज्ञान, चारित्र ही सदैव आत्मा के साथी हैं। शरीर आत्मा का साथी नहीं है वह तो बदलता रहता है। अत: जितना हो सके शरीर के माध्यम से उपार्जित पापों को कम करो और ज्ञानधारा मेें डूबकर कर्मधारा को पवित्र बनाओ ।
संजीव सिंघई, मनोज जैन ललितपुर, आर्यिका पूर्णमति के गृहस्थ समय के परिजन भावेश कुमार, अशोक जैन डगरपुर वालों ने आचार्य विद्यासागर के चित्र का अनावरण कर एवं दीप प्रज्जवलित कर धर्मसभा का शुभारंभ कराया । 8 वर्षीय बालिका लब्धि जैन ने तत्वार्थ सूत्र का प्रथम अध्याय मौखिक वाचनकर सभी को आश्चर्य चकित कर दिया। वर्षायोग पदाधिकारियों ने बालिका लब्धि जैन को सम्मानित किया। संचालन प्रवीण कुमार जैन एवं आभार अशोक रतनसेल्स ने व्यक्त किया ।
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