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साहित्य मनुष्य को जीवन जीने की कला सिखाता है: कुलपति

ByNeeraj sahu

Aug 5, 2025

साहित्य मनुष्य को जीवन जीने की कला सिखाता है: कुलपति

भारतीय ज्ञान परंपरा में बुंदेलखंड का अहम योगदान: हरगोविंद कुशवाहा

राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त की 139वीं जयंती के अवसर पर हिन्दुस्तानी एकेडेमी, प्रयागराज तथा हिंदी विभाग, बुंदेलखंड विश्वविद्यालय के संयुक्त तत्वावधान में आयोजित तीन दिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी का हुआ भव्य समापन

झांसी 05.08.2025। राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त की 139वीं जयंती के अवसर पर हिन्दुस्तानी एकेडेमी, प्रयागराज तथा हिंदी विभाग, बुंदेलखंड विश्वविद्यालय के संयुक्त तत्वावधान में आयोजित तीन दिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी के समापन अवसर की अध्यक्षता करता हुआ कुलपति प्रो. मुकेश पांडेय ने कहा कि साहित्य मनुष्य के जीवन से संबंध रखता है। साहित्य में जीवन के अनुभव शामिल होते हैं। साहित्य से मनोरंजन तो होता ही है नवीन जानकारियां भी प्राप्त होती हैं। उन्होंने बताया कि साहित्य से प्राप्त जानकारी को कौशल का प्रयोग कर कैसे ज्ञान के रूप में परिवर्तित किया जा सकता है।

मुख्य वक्ता लखनऊ विश्वविद्यालय के प्रोफेसर पवन अग्रवाल ने कहा कि बुंदेलखंड की अपनी एक समृद्ध सांस्कृतिक परंपरा रही है और यहां की संस्कृति अग्रगामी व प्रगतिशील संस्कृति रही है। उन्होंने बताया कि प्राचीन काल में उत्तर भारत के लिए आर्यावर्त, ब्रह्मावर्त और सुंदरावर्त जैसे नामों का उल्लेख मिलता है। इसके अतिरिक्त वन क्षेत्र के लिए नैमिषारण्य, तुंगारण्य व दण्डारण्य शब्दों का प्रयोग मिलता है। बुंदेलखंड में ज्ञान की परंपरा बहुत प्राचीन है कृषि के आदि ग्रंथ बुंदेलखंड क्षेत्र में लिखे गए महाभारत में भी बुंदेलखंड की जानकारी मिलती है जो कि विश्व को प्रबोधन देने वाला एक ग्रंथ है। अथर्वा ने जल से विद्युत की चर्चा की है।

मुख्य अतिथि उत्तर प्रदेश सरकार के दर्जा प्राप्त राज्य मंत्री हरगोविंद कुशवाहा ने कहा कि बुंदेलखंड के लोक साहित्यकार जगनिक, केशवदास, ईसुरी आदि ने अपनी रचनाओं में ज्ञान की एक परंपरा का विकास किया है जो भारतीय ज्ञान परंपरा की मूल्यवान धरोहर है। आल्हा ऊदल की शौर्य गाथा आज भी अमर है और समस्त देशवासियों को स्वदेश प्रेम और वीरता का संदेश देती है। इतना ही नहीं यह गाथा केवल बुंदेलखंड तक ही सीमित नहीं है भारत के अन्य कई क्षेत्रों मेंआल्हा गायन की परंपरा देखी जा सकती है। वीरता एवं बलिदान की यह परंपरा आगे भी जारी रही और महाराजा छत्रसाल के रूप में हम इसका प्रत्यक्ष उदाहरण देख सकते हैं जहां उन्होंने बुंदेली अस्मिता की रक्षा के लिए अनुपम वीरता का प्रदर्शन किया।

विशिष्ट वक्ता प्रोफेसर सिद्धार्थ शंकर मिश्र ने भारतीय ज्ञान परंपरा क्या है और कैसे विकसित हुई इस प्रश्न की सूत्रवार व्याख्या प्रस्तुत की। उन्होंने अपने संबोधन में बताया कि भारतीय ज्ञान परंपरा औपनिवेशिक काल में विस्मृत हो चुकी थी। इस ज्ञान परंपरा में किसी एक की प्रधानता नहीं है अर्थात इसे किसी एक तक सीमित नहीं किया जा सकता। यह लोक भी है, शास्त्र भी है। यह सार्वभौमिक है सर्वव्यापी है। वक्ता डॉ. बलजीत श्रीवास्तव ने अपने संबोधन में कहा कि बुंदेली लोक साहित्य में भारतीय ज्ञान परंपरा संरक्षित होती रही है। यह यहां के पारंपरिक लोकगीत आल्हा में प्रतिबिंबित होती है। नटवरी जैसे लोकनाट्य यहां की अनूठी विशेषता है। पर्यावरण और प्रकृति का संरक्षण बुंदेली ज्ञान परंपरा का अभिन्न पहलू रहा है। यहां नारी जीवन और चेतना प्रमुखता पाती रही है। युवा गीत के रूप में प्रेम भाव दिखाई देता है। बुंदेली लोक परंपरा पूरे मनुष्य के जीवन को समाहित करती है। अतिथियों का स्वागत हिन्दी विभाग के अध्यक्ष प्रो. मुन्ना तिवारी द्वारा किया गया। अतिथियों के प्रति आभार प्रो. पुनीत बिसारिया द्वारा ज्ञापित किया गया। कार्यक्रम का संचालन डॉ श्रीहरि त्रिपाठी द्वारा किया गया। कार्यक्रम में डॉ. अचला पाण्डेय, श्री नवीन चंद पटेल, डॉ. बिपिन प्रसाद, डॉ. प्रेमलता श्रीवास्तव, डॉ. सुधा दीक्षित, डॉ. सुनीता वर्मा, डॉ. द्युति मालिनी, रिचा सेंगर, डॉ. गरिमा, डॉ. रेनू शर्मा, डॉ. आशीष दीक्षित, कपिल शर्मा, डॉ. रामनरेश देहुलिया, आशुतोष शर्मा, जोगेंद्र, आकांक्षा, अजय तिवारी, समेत बड़ी संख्या में छात्र – छात्राएं मौजूद रहे।

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