अच्छे दिन तो आ चुके फिर गरीब क्यों है अपने शहर का आदमी कुछ बदनसीब क्यों है
विकास की बातें सुनने में निकली शामे-राते बदहाली फिर भी इतने करीब क्यों हैं
अच्छे दिन तो आ चुके फिर गरीब क्यों है अपने शहर का आदमी कुछ बदनसीब क्यों हैं
कभी किसी की सियासत थी कभी किसी की रियासत थी सर उठाया अगर किसी ने तो उनकी नजरों में बगावत थी यह दस्तूर दौलत वालों का इतना अजीब क्यों है
अच्छे दिन तो आ चुके फिर गरीब क्यों है अपने शहर का आदमी कुछ बदनसीब क्यों है
जिन्हें सर आंखों पर बिठाया आजकल नजर नहीं आते कौन अपना कौन पराया कभी समझ नहीं पाते कहे ”नीरज” जन-जन की यही आस है कि झूठा ”अमीर” और सच्चा ”फ़कीर” क्यों है
अच्छे दिन तो आ चुके फिर गरीब क्यों है अपने शहर का आदमी कुछ बदनसीब क्यों है